खानाबदोश की तरह हो गई है जिंदगी मेरी ,जिस जगह रुक जाऊ बस वही बसेरा।
न कोई घर , न मकान , न ही कोई आत्मीय जन।
ठहरती, रूकती , चलती रहती हूँ मैं।
जगह-जगह यादे छोड़ आती हूँ , ले आती हूँ वहाँ की यादे।
कभी किसी नदी के किनारे रेत सी बिछ जाती हूँ , तो किसी धरती पर मिट्टी की तरह बिखर जाती हूँ।
इस निसंग आकाश में भी तो मेरी आँखों का सूनापन ही दिखता है।
क्या पता की मेरे आज का कल क्या होगा।
मिल जाउंगी मिट्टी में या गुम हो जाउंगी सितारों में ......
इन करोड़ों अरबो प्रवासियों में आखिर मैं कौन हूँ , क्या हूँ ,
समुन्दर में एक नन्ही पानी की बूंद या किनारे पड़ी रेत की एक कण ? _______ kiran !
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