Friday, September 24, 2010
एक प्रश्न !!
अर्थ है क्या- प्रेम का , आकांक्षा का ...तुम बताओ !
क्या इसे हम प्राप्त करते है निरर्थक आस्था में ,
या की सरिता के निराले बांकपन में ?
--तुम बताओ !
शांत लहरों की अज़ब उत्तेजना का सबब क्या है ?
सिन्धु जल के ज्वार में क्या राज़ है ?
--मुझको बताओ !
रूठ जायेंगे , न मानेंगे युगों तक !
तुम कहाँ हो , कौन हो ?
कुछ तो बताओ ....!!!!!!!!
Thursday, June 10, 2010
वो शख्स किस क़दर था बुलंद
.
.
जरा ये सोच कि वो शख्स किस क़दर था बुलंद ,
जो ज़िन्दगी से कभी हारा नहीं !
बैचैन रहता था विस्तार पाने को ,
उत्सुक रहता था भोर की स्वर्णिम पारदर्शी किरणों की तरह फ़ैल जाने को !
उड़ता रहता था वो पंछी की तरह स्वच्छंद आकाश में ,
रोक नहीं पाता था कोई उसे आत्मसाक्षात्कार से ,
चलते चलते निकल जाता था ,
वो बहुत दूर कहीं ,
जहां कोई किनारा होता नहीं ........
तय करता था वह अपना अनजाना सफ़र ,
केवल खामोश और तनहा ,
बाँध नहीं पाता था कोई ,
सामाजिक बंधनों का बाँध उस पर ..........
नहीं परिसीमन करता था वो उन रिश्तों को ,
जो वो निभा सकता था नहीं .....
जीता था वो तनहा,
करता था वो अपने दिल की !
तभी तो बह नहीं पाया .....
वह वक़्त की बाढ़ में ,
क्यूंकि वह दूर नहीं था
स्वयं से !
..................MEETU.................
Saturday, April 3, 2010
पहली बरसात !!
हवाओं में ये कैसी सिहरन,
धरती से उठी कैसी भीनी सुगंध !
फिज़ाओं में ये कैसा जादू ,
मन में उठने लगा है ज़ज्बात !
शुष्क धरती के होठों की प्यास बुझाती,
मौसम की ये पहली बरसात !
पहली बारिस की मधुर नाद में,
आद्र हों उठा है मन !
ह्रदय वीणा के मौनबद्ध तार को ,
झनझना देते हैं बार - बार !
हवाएं सरगोशी से कुछ कहने सी लगी है ,
ये कैसा नशा है.... कैसा है ये जादू !.....
क्यों धड़कता दिल, हो रहा है बेकाबू !
सांसे थाम कर बैठे हैं हम ,
ये दिल थामकर बैठे हैं हम!
अब तो कह दो, ..कह दो ...
क्यों हों तुम ऐसे,
कि तुम्हे सजदा करने को बैठे है हम ...!!
Friday, February 5, 2010
शादी- शुदा औरत की त्रासदी-
तुम्हे, मेरा दुसरे मर्दों के साथ,
हँसना और बोलना पसंद नहीं है,-
ये समझकर कि मैं तुम्हारी गैर मौजूदगी में,
आवारा घूमती-फिरती हूँ,
तुम अंदर ही अंदर सुलगते रहते हो......
तुम अपने आपको यंत्रणा देते हो, ये सोचकर-
कि मैं तुम्हारे जानने वालो,
और अपने जनने वालो,
और दुसरे तमाम लोगो के साथ,
तुम्हारे खिलाफ बाते किया करती हूँ.....
तुम्हे इस वहम ने पागल कर रखा है-
कि मैं दूसरे मर्दों के साथ जाने क्या-क्या करती हूँ,
महज़ इस ख़याल से -
कि घर वापस आकर तुम्हें न जाने,
किस तरह का मंज़र देखना पड़े ,
तुम्हारे होश गुम हो जाते हैं .......
मेरे साथ रहते हुए, तुम्हारी जिंदगी हजारो -
आशंकाओ में घिरी हुयी हैं,
लेकिन, तुम इतने बुजदिल हो,
कि मेरे बगैर जिंदा भी नहीं रह सकते,
और तुममे इतनी योग्यता भी नही हैं -
कि शादी-शुदा जिन्दगी के योग्य हो सको!!!!!!
Thursday, February 4, 2010
परिंदा और मैं
परिंदा,
पिंजरे के अन्दर,
चारो तरफ गोल-गोल चक्कर लगाया,
उड़ने के लिए पंख फडफडाये-
अफ़सोस उड़ न सका.....
मै साक्षी थी उसकी बेबसी,लाचारी,क्रोध और झल्लाहट की,!
समय के साथ वह
भूलता गया पंख फडफडाना,
समझौता कर लिया था उसने परिस्तिथियों से-
और भूल चूका था कि-
वह परिंदा है उन्मुक्त गगन का ....
हम दोनों में एक ही समता थी ...
परिस्तिथियों से सझौता कर लेने की...
और अपने सामर्थ्य को भूल जाने की........
Sunday, January 31, 2010
"मै हूँ नारी "
मै भी चाहती हूँ -छोटा सा आकाश,
मुझे भी उड़ने दो इन फिजाओं में,
नही चाहती मै बंधन रीति-रिवाजों का,
नही चाहिए मुझे दान भीख का......
मुझे न दो नाम देवी का,
मै हूँ आईना इस समाज का....
मै भी इन्सान हूँ तुम्हारी तरह,
मै भी अधिकारिणी हूँ तुम्हारी तरह ,
नही चाहती कुछ और अधिक -
चाहती हूँ केवल स्वतन्त्र आस्तित्व.........
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