Wednesday, February 2, 2011
उधेड़बुन ...कुछ यूँ ही !
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नही नही .... कुछ नही .... कुछ भी नही ..... शायद खामोश रहना ही अच्छा है ..... लेकिन इस ख़ामोशी के आवरण में मेरा दम न घुट जाए ..... क्या करू ..... तुमसे कहू ..... तुम वो तो नही ...... तुम मेरी हो के नही ....... चलो मान लेती हूँ उनकी बात ........ लेकिन कहाँ ले जाऊं अपने दिल के ज़ज्बात .... कशमकश में हूँ ..... किससे कहू .... कैसे चुप रहू ..... कही मैं कर्ण तो नही ....... कहीं मैं दुर्योधन के शरण में तो नही ...... लेकिन उसके शरण में तो मृत्यु है ..... तो क्या जिंदगी मेरे अपनों के हाथ है ..... क्या सच में वे अपने मेरे साथ है ....... लेकिन विश्वाश्घात तो विश्वासपात्र ही करते है न ...समझाओ मत मुझे रिश्तो के दर्शन ...... जानना भी नही चाहती ..... क्या कहू .... क्या करू ..... पहले तुम्हे समझ लू फिर साथ चलू ...... कभी धूप निराकार .... कही सपनो ने लिए आकार .....आज जो तुमने कहा ... उसने भी मुझसे कहा था कभी ...... फिर जाने वे शब्द कहाँ खो गए .... शायद मेरी नींद में सपने सो गए ..... अब नही यकीन सपनो पर .... चलो आओ न हकीकत में तुम .... इब ख्वाबो से बाहर .... चलो तलाशे कोई ऐसी जिंदगी ..... जहां तुम्हे कोई गम न हो ..... जहा मेरी आँख नम न हो ..... क्या मिलेगी कहीं मेरे हिस्से की वो जमीन .. क्या करूँ .... तू ही बोल न ..... खामोश कैसे रहूँ ..... घुटी साँसों के बीच आवाज़ भी तो नही निकलती है न ......नही नही ...कुछ नही ....... कुछ भी नही ...!.????__________मीतू !!
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kiran ji namaste maine kuch dino pahle hi fb ko join kiya logo ke dvara is ka galat istamal kiya jata hai jiske baad maine socha yah faltu samay li barbadi hai par jab se muje apke davra post ki gai baato ko padne ka mouka mila to accha laga aap bahut aachha likhhati hai
ReplyDeleteaachha likhhati hai
ReplyDeletemukeshjoshi joshi
ReplyDelete9 Hours ago
मन में उठा ये, कोला-हल कैसा,
मन तो है, हिरण चंचल जैसा,
मन के हाथों में मत दो अपनी बाग-डोर,
भगाता रहेगा ये है ,चित्त चोर,
मन बावरा है, मन ही जोगी,
उसकी हसरते कही पूरी नही होगी,
छोटी बड़ी आरजू का मन भोगी
कभी -कभी बे-मतलब मन रोगी,
क्या चाहता है, ये ख़ुद ही ना जाने,
लाख समजाओ पर ये ना माने,
अजब से बजती है, इसमे जब कोई धुन,
ऐसी ही होती है ये मन कि उधेदबुन,
गली-गली लेके फिरे ये प्यार का सामान,
जैसी कोई मोल या सजी हो दुकान,
औरत इस तरहा क्यू अपना, करे हे इस्तेहार,
ख़ुद ही बनाये सजाये अपनी ही मजार ,
आज की ये नारी कहा जां रही हे,
और ख़ुद ही बन के खिलौना किसे लुभा रही है,
ये जिस्म नही प्यार का खिलौना,
गली-गली लेके फिरे ये प्यार का सामान,
जैसी कोई मोल या सजी हो दुकान,
औरत इस तरहा क्यू अपना, करे हे इस्तेहार,
ख़ुद ही बनाये सजाये अपनी ही मजार ,
आज की ये नारी कहा जां रही हे,
और ख़ुद ही बन के खिलौना किसे लुभा रही है,
ये जिस्म नही हे प्यार का खिलौना,
ना समज जिंदगी को सपना सलोना,
हर आइना कैसा हो रहा है, धूमिल,
रास्ता ही रास्ता नही दिख!ता ये मंज़िल,
ये कैसा खेल हे ,आज दुनिया के बाज़ार में,
मुहोब्बत भी तूल रही हे, आज-कल व्योपार हे,
खुदा जाने इसका अंजाम क्या हो,
कल कि नारी का सन्मान क्या हो,